परानिधेश भारद्वाज
भिण्ड। अटेर क्षेत्र के परा ग्रामान्तर्गत अमन आश्रम परिसर में भक्तों को उपदेशित करते हुए अनंतश्री विभूषित श्री काशीधर्मपीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी नारायणानंद तीर्थ महाराजश्री ने बताया कि, भगवान श्रीकृष्ण अनेक स्थलों पर अनेक बार इस महान तथ्य पर बल देते हैं कि कर्मयोगी को काम और क्रोध का परित्याग कर देना चाहिए। जो काम और क्रोध के वेग को सहन कर लेता है, वह योगी है तथा जीवित अवस्था में ही मुक्त है। काम का नाश होने पर कर्मयोग हो जाता है तथा मनुष्य का अंतःकरण शुचि हो जाता है।कामना की पूर्ति में बाधा उपस्थित होने से तथा अहंकार के कारण क्रोधाग्नि भड़क जाती है। क्रोध अपनी तथा दूसरों की हानि करता है तथा भेदभाव बढ़ाकर सुधार के अवसर को क्षीण कर देता है। क्रोध मानसिक शांति एवं संतुलन को ध्वस्त करके मनुष्य के शरीर में भूकंप उत्पन्न कर देता है हृदयादि को जर्जर कर देता है। काम और क्रोध का संतोष एवं विवेक द्वारा शमन करके मनुष्य अपना महान उपकार करता है। जीव मात्र के हित में रत रहना योगी का लक्षण है। योगी अपना स्वार्थ त्याग कर प्राणी मात्र के कल्याण में संलग्न रहता है। व्यक्ति तथा समाज का कल्याण अन्यनोश्रित होता है।
पूज्य महाराजश्री ने आगे कहा कि कर्मयोग की साधना के प्रमुख भाग परिवार में सीखे जाते हैं। दूसरों के विचार, दूसरों की रुचि तथा दूसरों के हित का चिंतन करना परिवार के अनुशासन का अभिन्न अंग होता है। परस्पर प्रेम, त्याग तथा न्याय परिवार के संगठन को सुदृढ़ करते हैं तथा स्वार्थ, कपट और न्याय रहित पुष्टिकरण उसे ध्वस्त कर देते हैं। परिवार की उन्नति में सहयोग देना तथा परिवार की मान-मर्यादा एवं सुयश को सुरक्षित रखना सभी सदस्यों के हित में होता है। विनम्रता, सादगी, सेवाभावना तथा सन्तोषवृत्ति होने पर ही पुरुषार्थ सुशोभित होता है। भौतिक समृद्धि एवं दुर्व्यसनों को उच्च जीवन स्तर अथवा सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक मानने से जीवन भ्रष्ट मार्गों में भटक कर महान दुःख का कारण बन जाता है। मनुष्य संकल्प शक्ति से दुर्व्यसनों का त्याग कर सकता है।
संतोष सच्चा धन होता है तथा संतोष न होने पर मनुष्य अनंत धन पाकर भी भिखारी ही रहता है। परिवार के वातावरण को कपट एवं कटु वाक्यों से कदापि दूषित नहीं करना चाहिए। वाणी में शक्ति अमृत होता है तथा विध्वंसक विष भी होता है। अनर्गल अथवा अनर्थकारी वचन कहने की अपेक्षा मौन धारण करना अच्छा है।
जो मनुष्य सच्चरित्रता एवं पवित्रता को परिवार की प्रतिष्ठा का आधार बना लेते हैं तथा आध्यात्मिक मूल्यों को सर्वाधिक महत्व देते हैं, वे सुदृढ़ एवं भव्य समाज का निर्माण करते हैं। जहाँ शुचिता है, वहाँ सुखमयता है, संपन्नता है। जहाँ जीवन पर प्रेम का आधिपत्य है, वहाँ माधुर्य है। सत्यनिष्ठ एवं कर्मनिष्ठ सत्पुरुष का नित्य अभिनंदन होता है। सत्यनिष्ठ एवं कर्मनिष्ठ पुरूष अग्नि परीक्षा में भी अड़े रहते हैं तथा सुयश की सुगंध परिवार आदि की सीमाओं में बंधी नहीं रह सकती। कर्मयोगी का जीवन मंगलमय होता है तथा मंगलमयता का चतुर्दिक प्रसार होता है।
उक्त अवसर पर विभिन्न प्रान्तों से आए हुए सैकड़ों भक्तों ने पादुका पूजन एवं माल्यार्पण कर महाराजश्री का आशीर्वाद प्राप्त किया।