- परानिधेश भारद्वाज
भिण्ड। दशहरे का पर्व शक्ति और सत्य का समन्वय करने वाला है। जितनी शक्ति हमें मिली है वह कम है इसलिए प्रतिवर्ष हम शक्ति की उपासना करते हैं। राम भगवान भी नौ दिन शक्ति की उपासना करके शक्तिशाली बने थे तब दसवें दिन भगवान राम ने रावण को मारा था। शक्ति की आराधना से आत्म विश्वास पैदा हो जाता है जिससे विजय प्राप्त होती है। और हम जीवन में आसुरी शक्तियों, अधर्म पर विजय प्राप्त करें। हमारी संस्कृति शौर्य की उपासक है। सभी वेद पुराणों में शौर्य की महत्ता का वर्णन किया गया है। हमारा हाथ और विवेक खुद की रक्षा करता है साथ ही दूसरों की भी। किसी भी कार्य के लिए जिस समय निकलते हो उस समय का भी बहुत महत्व होता है। भगवान ने रावण को मारने से पहले नौ दिन शक्ति की उपासना की और फिर दसवें दिन रावण को मारने के लिए प्रस्थान किया। इसी प्रकार शिवाजी ने भी आज ही के दिन अंग्रेजों और मुगलों से लड़ने के लिए प्रस्थान किया था। सभी राजा महाराजा उत्साह में रहते हैं कि नौ दिन शक्ति की उपासना की है तो दशहरा के दिन विजय प्रस्थान करने पर विजय अवश्य प्राप्त होती है।
दशहरा पर शस्त्र पूजन करते हैं और यह प्रार्थना की जाती है कि हम इसका दुरूपयोग नहीं करेंगे। शस्त्र केवल आत्मरक्षार्थ होता है ना कि किसी प्रकार के दुरुपयोग के लिए। परा गांव स्थित अमन आश्रम में श्रीमद्भागवत सप्ताह ज्ञान यज्ञ के अंतर्गत श्री काशीधर्म पीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी नारायणानंद तीर्थ जी ने दशहरा के महत्व का वर्णन करते हुए यह बातें कहीं।
महाराज ने कहा जहाँ श्री कृष्ण और अर्जुन जैसे गुरु-शिष्य हों, वहाँ तो विजय सुनिश्चित है, विजय का शंखनाद अवश्य होगा। जहाँ मनुष्य अविरल रूप से प्रयत्न कर रहा है दशहरे का पर्व शक्ति का समन्वय करने का पर्व है। नौ दिनों तक श्रीराम ने भगवती की आराधना करके जो शक्तियां अर्जित किया उसी के प्रभाव से रावण जैसे आसुरी शक्ति का अंत कर पाए। दशहरा पर्व विजय के उत्थान का पर्व है। भारतीय सँस्कृति वीरों की भूमि रही है विजयादशमी का पर्व पूर्णता का द्योतक है। यह पर्व हमारे मनश्चित्तवृत्ति में निहित कुत्सित भावों को समाप्त कर सद्भावों का सञ्चार करे।
शंकराचार्य महाराज ने कहा मनुष्य को श्रद्धापूर्वक धर्म कार्य करना चाहिये। जिस परमात्मा ने हमें यह शरीर दिया है उसे हम अज्ञानतावस भूले बैठे हैं। दु:खी वही लोग होते हैं जो अपना-अपना करते हैं। केवल एक भगवत्तत्व ही वास्तविक तत्व है, बाकी सब अतत्व है। जब-तक अन्तःकरण में संसार का महत्त्व होता है, तब-तक प्यारे प्रभु का महत्व समझ में नहीं आ सकता है। कभी-कभी हम संसार की हर नाशवान वस्तु के पीछे दौड़ते हैं, पर जो नाशवान नहीं है, उसको भुला बैठते हैं। संसार की हर प्राप्त वस्तु नष्ट होने वाली है, पर जो परमतत्त्व परमात्मा है, वह कभी नष्ट नहीं होता।
महाराजश्री ने बताया कि अंतकाल में मनुष्य की आसक्ति जिसमें होती है उसको वैसी ही योनी प्राप्त होती है। भरत को अंतकाल में हिरण के बच्चे में आसक्ति हो गई तो उन्हें अगले जन्म में हिरण की योनी प्राप्त हुई। सांसारिक क्रियाकलापों में लिप्त जब हम कई तरह के संकट में फँस जाते हैं अथवा अपने पूर्व जन्म के संस्कारों से जब हमें जब कभी प्रभु प्रेमीजनों का सानिध्य प्रसाद रूप में प्राप्त होता है, तो सहसा हमें उस परमतत्त्व परमात्मा की अनुभूति अंतर्मन में करने की लालसा हो उठती है।
जिस प्रकार से हम अपने छोटे से निश्छल बच्चे के मुख से अपना नाम सुनना पसंद करते हैं तथा बार-बार कहने को कहते हैं और उसके बुलाने पर उसके पास दौड़े चले जाते हैं। निश्छल प्रेम और सरल हृदय के भाव के भूखे प्रभु, अपने भक्त की करुण पुकार सुन ठीक उसी प्रकार प्रकट हो जाते हैं।
पूज्य शंकराचार्य जी ने कहा कि, हमारे जीवन में संस्कारों का अत्यधिक महत्व है। दैत्य कुल में जन्म लेकर भी भक्त प्रह्लाद का भगवतभक्त हो जाना यह संस्कारों से ही सम्भव है। भारतीय संस्कृति के जीवंत संस्कारों में प्रमुख हैं देवार्चन और देवदर्शन। हमारा जन्म, हमारे कार्य, हमारा मन और हमारी वाणी के द्वारा सर्वसमर्थ भगवान की सेवा करना ही देवार्चन है और साथ ही श्रेष्ठ सदाचार भी है। जो हमारी आस्था-ज्योति के आलोक से अज्ञानता के सघन-अंधकार को नष्ट कर शांति प्रदान करती है। छलरहित और शुद्ध मन की ‘स्तुति’ ही प्रभु स्वीकारते है और नृसिंह अवतार लेकर भक्त प्रह्लाद की रक्षा करते हैं।